ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे शकील बदायुनी ग़ज़ल

ग़म-ए-आशिक़ी से कह दो रह-ए-आम तक न पहुँचे

मुझे ख़ौफ़ है ये तोहमत तिरे नाम तक न पहुँचे

मैं नज़र से पी रहा था तो ये दिल ने बद-दुआ दी

तिरा हाथ ज़िंदगी भर कभी जाम तक न पहुँचे

वो नवा-ए-मुज़्महिल क्या न हो जिस में दिल की धड़कन

वो सदा-ए-अहल-ए-दिल क्या जो अवाम तक न पहुँचे

मिरे ताइर-ए-नफ़स को नहीं बाग़बाँ से रंजिश

मिले घर में आब-ओ-दाना तो ये दाम तक न पहुँचे

नई सुब्ह पर नज़र है मगर आह ये भी डर है

ये सहर भी रफ़्ता रफ़्ता कहीं शाम तक न पहुँचे

ये अदा-ए-बे-नियाज़ी तुझे बेवफ़ा मुबारक

मगर ऐसी बे-रुख़ी क्या कि सलाम तक न पहुँचे

जो नक़ाब-ए-रुख़ उठा दी तो ये क़ैद भी लगा दी

उठे हर निगाह लेकिन कोई बाम तक न पहुँचे

उन्हें अपने दिल की ख़बरें मिरे दिल से मिल रही हैं

मैं जो उन से रूठ जाऊँ तो पयाम तक न पहुँचे

वही इक ख़मोश नग़्मा है 'शकील' जान-ए-हस्ती

जो ज़बान पर न आए जो कलाम तक न पहुँचे

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