दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी साक़ी फ़ारुक़ी ग़ज़ल

दामन में आँसुओं का ज़ख़ीरा न कर अभी

ये सब्र का मक़ाम है गिर्या न कर अभी

जिस की सख़ावतों की ज़माने में धूम है

वो हाथ सो गया है तक़ाज़ा न कर अभी

नज़रें जला के देख मनाज़िर की आग में

असरार-ए-काएनात से पर्दा न कर अभी

ये ख़ामुशी का ज़हर नसों में उतर न जाए

आवाज़ की शिकस्त गवारा न कर अभी

दुनिया पे अपने इल्म की परछाइयाँ न डाल

ऐ रौशनी-फ़रोश अंधेरा न कर अभी

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