हस्ती अपनी हबाब की सी है मीर तक़ी मीर ग़ज़ल

हस्ती अपनी हबाब की सी है

ये नुमाइश सराब की सी है

नाज़ुकी उस के लब की क्या कहिए

पंखुड़ी इक गुलाब की सी है

चश्म-ए-दिल खोल इस भी आलम पर

याँ की औक़ात ख़्वाब की सी है

बार बार उस के दर पे जाता हूँ

हालत अब इज़्तिराब की सी है

नुक़्ता-ए-ख़ाल से तिरा अबरू

बैत इक इंतिख़ाब की सी है

मैं जो बोला कहा कि ये आवाज़

उसी ख़ाना-ख़राब की सी है

आतिश-ए-ग़म में दिल भुना शायद

देर से बू कबाब की सी है

देखिए अब्र की तरह अब के

मेरी चश्म-ए-पुर-आब की सी है

'मीर' उन नीम-बाज़ आँखों में

सारी मस्ती शराब की सी है

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