लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में बहादुर शाह ज़फ़र ग़ज़ल

लगता नहीं है दिल मिरा उजड़े दयार में

किस की बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में

कह दो इन हसरतों से कहीं और जा बसें

इतनी जगह कहाँ है दिल-ए-दाग़-दार में

काँटों को मत निकाल चमन से ओ बाग़बाँ

ये भी गुलों के साथ पले हैं बहार में

बुलबुल को बाग़बाँ से न सय्याद से गिला

क़िस्मत में क़ैद लिक्खी थी फ़स्ल-ए-बहार में

कितना है बद-नसीब 'ज़फ़र' दफ़्न के लिए

दो गज़ ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में

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