कौन समझेगा / अरुण मित्तल अद्भुत

वेदना के व्यक्त जल को कौन समझेगा
मेरे आँसू के महल को कौन समझेगा

इस शहर में झूठ ही मशहूर होता है
सत्य पर मेरी पहल को कौन समझेगा

जिन्दगी को ही कहाँ कब हम समझ पाए
तुम बताओ फिर अजल को कौन समझेगा

ना मिलन ना आस हो कोई भी मिलने की
उस विरह के दावानल को कौन समझेगा

तुमको भेजी है ग़ज़ल यह सोचकर अद्भुत
तुमसे बेहतर इस ग़ज़ल को कौन समझेगा

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