जो उजालों में / अरुण मित्तल अद्भुत

जो उजालों में मिलेंगे शाम को
वो सुबह जैसा कहेंगे शाम को

इन चिरागों में किसी का है लहू
खुद ब खुद ये जल उठेंगें शाम को

वो लतीफा सुनके अब तो चल दिए
गर समझ आया हँसेंगे शाम को

याद रखना इन पलों की दास्तां
इक दफा हम फिर मिलेंगे शाम को

दिलजलों को इसमें इक पैगाम है
यह गजल फिर से पढेंगे शाम को

सूना है मयखाना अब तो गम न कर
लोग बहुतेरे जुडेंगे शाम को शाम को

साथ लेकर हम भी कोई गम गुसार
कब्र पर उनकी मिलेंगे शाम को

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