सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता अमीर मीनाई ग़ज़ल

सरकती जाए है रुख़ से नक़ाब आहिस्ता आहिस्ता

निकलता आ रहा है आफ़्ताब आहिस्ता आहिस्ता

जवाँ होने लगे जब वो तो हम से कर लिया पर्दा

हया यक-लख़्त आई और शबाब आहिस्ता आहिस्ता

शब-ए-फ़ुर्क़त का जागा हूँ फ़रिश्तो अब तो सोने दो

कभी फ़ुर्सत में कर लेना हिसाब आहिस्ता आहिस्ता

सवाल-ए-वस्ल पर उन को अदू का ख़ौफ़ है इतना

दबे होंटों से देते हैं जवाब आहिस्ता आहिस्ता

वो बेदर्दी से सर काटें 'अमीर' और मैं कहूँ उन से

हुज़ूर आहिस्ता आहिस्ता जनाब आहिस्ता आहिस्ता

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