ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम शाद अज़ीमाबादी ग़ज़ल

ढूँडोगे अगर मुल्कों मुल्कों मिलने के नहीं नायाब हैं हम

जो याद न आए भूल के फिर ऐ हम-नफ़सो वो ख़्वाब हैं हम

मैं हैरत ओ हसरत का मारा ख़ामोश खड़ा हूँ साहिल पर

दरिया-ए-मोहब्बत कहता है आ कुछ भी नहीं पायाब हैं हम

हो जाए बखेड़ा पाक कहीं पास अपने बुला लें बेहतर है

अब दर्द-ए-जुदाई से उन की ऐ आह बहुत बेताब हैं हम

ऐ शौक़ बुरा इस वहम का हो मक्तूब तमाम अपना न हुआ

वाँ चेहरे पे उन के ख़त निकला याँ भूले हुए अलक़ाब हैं हम

किस तरह तड़पते जी भर कर याँ ज़ोफ़ ने मुश्कीं कस दीं हैं

हो बंद और आतिश पर हो चढ़ा सीमाब भी वो सीमाब हैं हम

ऐ शौक़ पता कुछ तू ही बता अब तक ये करिश्मा कुछ न खुला

हम में है दिल-ए-बेताब निहाँ या आप दिल-ए-बेताब हैं हम

लाखों ही मुसाफ़िर चलते हैं मंज़िल पे पहुँचते हैं दो एक

ऐ अहल-ए-ज़माना क़द्र करो नायाब न हों कम-याब हैं हम

मुर्ग़ान-ए-क़फ़स को फूलों ने ऐ 'शाद' ये कहला भेजा है

आ जाओ जो तुम को आना हो ऐसे में अभी शादाब हैं हम

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