ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही सिराज औरंगाबादी ग़ज़ल

ख़बर-ए-तहय्युर-ए-इश्क़ सुन न जुनूँ रहा न परी रही

न तो तू रहा न तो मैं रहा जो रही सो बे-ख़बरी रही

शह-ए-बे-ख़ुदी ने अता किया मुझे अब लिबास-ए-बरहनगी

न ख़िरद की बख़िया-गरी रही न जुनूँ की पर्दा-दरी रही

चली सम्त-ए-ग़ैब सीं क्या हवा कि चमन ज़ुहूर का जल गया

मगर एक शाख़-ए-निहाल-ए-ग़म जिसे दिल कहो सो हरी रही

नज़र-ए-तग़ाफ़ुल-ए-यार का गिला किस ज़बाँ सीं बयाँ करूँ

कि शराब-ए-सद-क़दह आरज़ू ख़ुम-ए-दिल में थी सो भरी रही

वो अजब घड़ी थी मैं जिस घड़ी लिया दर्स नुस्ख़ा-ए-इश्क़ का

कि किताब अक़्ल की ताक़ पर जूँ धरी थी त्यूँ ही धरी रही

तिरे जोश-ए-हैरत-ए-हुस्न का असर इस क़दर सीं यहाँ हुआ

कि न आईने में रही जिला न परी कूँ जल्वागरी रही

किया ख़ाक आतिश-ए-इश्क़ ने दिल-ए-बे-नवा-ए-'सिराज' कूँ

न ख़तर रहा न हज़र रहा मगर एक बे-ख़तरी रही

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