सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं फ़िराक़ गोरखपुरी ग़ज़ल

सर में सौदा भी नहीं दिल में तमन्ना भी नहीं

लेकिन इस तर्क-ए-मोहब्बत का भरोसा भी नहीं

दिल की गिनती न यगानों में न बेगानों में

लेकिन उस जल्वा-गह-ए-नाज़ से उठता भी नहीं

मेहरबानी को मोहब्बत नहीं कहते ऐ दोस्त

आह अब मुझ से तिरी रंजिश-ए-बेजा भी नहीं

एक मुद्दत से तिरी याद भी आई न हमें

और हम भूल गए हों तुझे ऐसा भी नहीं

आज ग़फ़लत भी उन आँखों में है पहले से सिवा

आज ही ख़ातिर-ए-बीमार शकेबा भी नहीं

बात ये है कि सुकून-ए-दिल-ए-वहशी का मक़ाम

कुंज-ए-ज़िंदाँ भी नहीं वुसअ'त-ए-सहरा भी नहीं

अरे सय्याद हमीं गुल हैं हमीं बुलबुल हैं

तू ने कुछ आह सुना भी नहीं देखा भी नहीं

आह ये मजमा-ए-अहबाब ये बज़्म-ए-ख़ामोश

आज महफ़िल में 'फ़िराक़'-ए-सुख़न-आरा भी नहीं

ये भी सच है कि मोहब्बत पे नहीं मैं मजबूर

ये भी सच है कि तिरा हुस्न कुछ ऐसा भी नहीं

यूँ तो हंगामे उठाते नहीं दीवाना-ए-इश्क़

मगर ऐ दोस्त कुछ ऐसों का ठिकाना भी नहीं

फ़ितरत-ए-हुस्न तो मा'लूम है तुझ को हमदम

चारा ही क्या है ब-जुज़ सब्र सो होता भी नहीं

मुँह से हम अपने बुरा तो नहीं कहते कि 'फ़िराक़'

है तिरा दोस्त मगर आदमी अच्छा भी नहीं

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